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झल बांयें झल दांहिनैं, झलहि मांहि ब्यौहार।
आगैं पीछे झलमई, राखै सिरजनहार।।१९०१।।— संत कबीर दास साहेब
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सांई मेरा बांणियां, सहजि करै ब्यौपार।
बिन डांडी बिन पालड, तोलै सब संसार।।१९०२।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर बारया नाव परि, कीया राई लूंण।
जिसहि चलावै पंथ तूं, तिसहि भुलावै कौंण।।१९०३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर करणी क्या करै, जे राम न करै सहाइ।
जिहि जिहि डाली पग धरै, सोई नवि नवि जाइ।।१९०४।।— संत कबीर दास साहेब
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जदि का माइ जनमियां, कहूं न पाया सुख।
डाली डाली मैं फिरौं, पातौं पातौं दुख।।१९०५।।— संत कबीर दास साहेब
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सांई से सब होत हैं, बंदे से कछु नाहिं।
राई से परबत करे, परबत राई मांहि।।१९०६।।— संत कबीर दास साहेब
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काइर हुंवां न छूटिये, कछु सूरातन साहि।
भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल संवाहि।।१९०७।।— संत कबीर दास साहेब
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षूंणै पड्या न छुटियो, सुणि रे जीव अबूझ।
कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्रया सूं झूझ।।१९०८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर साई सूरिवां, मन सूं मांडे झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज।।१९०९।।— संत कबीर दास साहेब
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सूरा झूझै गिरद सूं, इक दिसि सूर न होइ।
कबीर यौं बिन सूरिवां, भला न कहिसी कोइ।।१९१०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर आरणि पैसि करि, पीछैं रहै सु सूर।
सांई सूं साचा भया, रहसी सदा हजूर।।१९११।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर मेरे संसा को नहीं, हरि सूं लागा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणां, चौड़े मांडूया खेत।।१९१२।।— संत कबीर दास साहेब
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सूरैं सार संबाहिया, पहरया सहज संजोग।
अब कै ग्यांन गयंद चढ़ि, खेत पड़न का जोग।।१९१३।।— संत कबीर दास साहेब
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सूरा तबही कै परषिये, लडै दीन कै हेत।
पुरिजा पुरिजा ह्व पड़ै, तऊ न छांडै खेत।।१९१४।।— संत कबीर दास साहेब
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खेत न छाडै सूरिवां, झझै द्वै दल मांहि।
आसा जीवन मरण की, मन मैं आंणै नाहि।।१९१५।।— संत कबीर दास साहेब
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अब तौ झूझयां ही वणौं, मूढ़ि चाल्यां घर दूरि।
सिर साहिब कौं सौंपता, सोच न कीजै सूरि।।१९१६।।— संत कबीर दास साहेब
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अब तो ऐसी ह्वै पड़ी, मनका रुचित कीन्ह।
मरनैं कहा डराइये, हाथि स्यंधौरा लीन्ह।।१९१७।।— संत कबीर दास साहेब
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जिस मरनै से जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूं कब देखिहूं, पूरन परमानंद।।१९१८।।— संत कबीर दास साहेब
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कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलैं सूर।
काम पड्यांं ही जांणिहै, किसके मुख परि नूर।।१९१९।।— संत कबीर दास साहेब
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जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।
बांहणहारा जणि है, कै जांणै जिस लाग।।१९२०।।— संत कबीर दास साहेब
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घाइल घूंमे गहि भरया, राख्या रहै न ओट।
जतन कियां जीवै नहीं, बणीं मरम की चोट।।१९२१।।— संत कबीर दास साहेब
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ऊंचा विरष अकासि फल, पंषरू मूए झूर।
बहुत सयांने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि।।१९२२।।— संत कबीर दास साहेब
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दूरि भया तो का भया, सिर दे नेडा होइ।
जब लग सिर सौंपै नहीं, कारिज सिधि न होइ।।१९२३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नांहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठ घर मांहि।।१९२४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि घरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद।।१९२५।।— संत कबीर दास साहेब
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सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्हा।
जाहि भावे सो आइ ल्यो, प्रेम हाट हम कीन्ह।।१९२६।।— संत कबीर दास साहेब
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सूर सीस उतारिया, छाड़ा तन की आस।
आगैं थैं हरि मुलकिया, आवत देख्या दास।।१९२७।।— संत कबीर दास साहेब
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सती जलन कूं नीकली, चित्त धरि एकबमेख।
तन मन सौंप्या पीव कूं, तब अंतर रही न रेख।।१९२८।।— संत कबीर दास साहेब
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हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूं न मराइ।
मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्यूं न कराइ।।१९२९।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर प्रगट राम कहि, छांनै राम न गाइ।
फूस क जौंड़ा दूरि करि, ज्यूं बहुरि न लागै लाइ।।१९३०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ।।१९३१।।— संत कबीर दास साहेब
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आप सवारथ मेदनीं, भगत सवारथ दास।
कबीर राम सवारथी, जिनि छाड़ी तन की आस।।१९३२।।— संत कबीर दास साहेब
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कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूढै बन मांहि।
ऐसै घटि घटि राम हैं, दुनियां देखै नांहि।।१९३३।।— संत कबीर दास साहेब
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कोइ एक देखै संत जन, जांकै पांचूं हाथि।
जाके पांचूं बस नहीं, ता हरि संग न साधि।।१९३४।।— संत कबीर दास साहेब
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सो सांई तन मैं बसै, भ्रम्यों न जाण तास।
कस्तूरी के मृग ज्यूं, फिर फिर सूधैं घास।।१९३५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप।
राम तो घट भीतर रमि रह्या, जौ आवै परतीत।।१९३६।।— संत कबीर दास साहेब
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घटि बधि कहीं न देखिए, ब्रह्म रह्या भरपूरि।
आप पिछांणै बहिरा, नेड़ा की थैं दूरि।।१९३७।।— संत कबीर दास साहेब
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मैं जाण्यां हरि दूरि है, हरि रह्या सकल भरपूरि।
आप पिछांणै बहिरा, नेड़ा की थैं दूरि।।१९३८।।— संत कबीर दास साहेब
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तिणकैं आल्है राम है, परबत मेरैं भाइ।
सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट मांहि।।१९३९।।— संत कबीर दास साहेब
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राम नाम तिहूं लोक मैं, सकलहु रह्या भरपूरि।
यह चतुराई जाहु जलि, खोजत डोलैं दूरि।।१९४०।।— संत कबीर दास साहेब
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दीपक पाव आंणिया, तेल भी आण्या संग।
तीन्यूं मिलि करि जोइया, उड़ि उड़ि पड़ पतंग।।१९४१।।— संत कबीर दास साहेब
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मारया है जो मरैगा, बिर सर थोथी भालि।
पड्या पुकारै ब्रिछ तरि, आजि मरै कै काल्हि।।१९४२।।— संत कबीर दास साहेब
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हिरदा भीतरि दौं बलै, धूंवां प्रगट न होइ।
जाकै लागी सो लखै, कै जिहि लाई सोइ।।१९४३।।— संत कबीर दास साहेब
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झल ऊठा झाोली जली, खपरा फूटिम फूटि।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति।।१९४४।।— संत कबीर दास साहेब
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अगनि जू लागि नीर मैं, कंदू जलिया झारि।
उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि।।१९४५।।— संत कबीर दास साहेब
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दौं लागी साइर जल्या, पंषी बैठे आइ।
दाधी देह न पालवै, सतगुर गया लगाइ।।१९४६।।— संत कबीर दास साहेब
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गुर दाघा चेला जल्या, बिरहा लागी आगि।
तिणका बपुड़ा ऊबरया, गलि पूरे कै लागि।।१९४७।।— संत कबीर दास साहेब
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आहेड़ी दौं लाइया, मृग पुकारै रोइ।
जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ।।१९४८।।— संत कबीर दास साहेब
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पाणीं माहै प्रजली, भई अप्रबल आगि।
बहती सलिता रहि गई, मंछ रहे जल त्यागि।।१९४९।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़हि चाकि।।१९५०।।— संत कबीर दास साहेब
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राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवण दुर्लभ है, मांगै सीस कलाल।।१९५१।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ।।१९५२।।— संत कबीर दास साहेब
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मैंमंता तिण नां चरै, सालै चिता सनेह।
एक बारि जु बांध्या प्रेम कै, डारि रह्या सिरि षेह।।१९५३।।— संत कबीर दास साहेब
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मैंमंता अविगत रता, अकलप आसा जीति।
राम अमलि माता रहै, जीवत मुकति अतीति।।१९५४।।— संत कबीर दास साहेब
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जिहि सर घड़ा न डूबता, अब मैंगल मलि मलि न्हाइ।
देवल बूड़ा कलम सूं, पंषि तिसाई जाइ।।१९५५।।— संत कबीर दास साहेब
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सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सबतन कंचन होइ।।१९५६।।— संत कबीर दास साहेब
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जहां जुरा मरण व्यापै नहीं, मुवा न सुणिये कोइ।
चलि कबीर तिहि देसड, जहां वैद विधाता होइ।।१९५७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर जोगी बनि बस्या, षणि खाये कंद मूल।
नां जाणौं किस जड़ी थै, अमर भए असथूल।।१९५८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि चरणौं चल्या, माया मोह थै टूटि।
गगन मंडल आसण किया, काल गया सिर कूटि।।१९५९।।— संत कबीर दास साहेब
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यह मन पटकि पछाडि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पगलु ह्वै पिव पिव करै, पीछौं काल न खाइ।।१९६०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर मन तीषा किया, बिरह लाइ परषांन।
चित चरणूं मैं चभि रह्या, तहां नहीं काल का पाण।।१९६१।।— संत कबीर दास साहेब
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तरवर तास बिलांबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंषी केलि करंत।।१९६२।।— संत कबीर दास साहेब
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दाता तरवर दया फल, उपगारी जीवंत।
पंषा चले दिसावरां, विरषा सुफल फलंत।।१९६३।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिले, हम कौं दे उपदेस।
भौसागर मैं डूबता, कर गहि काढ़े केस।।१९६४।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई न मिले, हम कौं लेइ पिछानि।
अपना करि किरपा करे, ले उतारे मैदानि।।१९६५।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिले, राम भगति का गीत।
तन मन सौंपे मृग ज्यूं, सुनै बधिक का गीत।।१९६६।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिले, अपना घर देइ जराइ।
पंचूं लरिका पटिक करि, रहै राम ल्यौं लाइ।।१९६७।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिले, जासौं रहिये लागि।
सब जग जलता देखिये, अपणीं अपणीं आगि।।१९६८।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिले, सब विधि देइ बताइ।
सुंनि मंडल मैं पुरिष एक, ताहि रहै ल्यो लाइ।।१९६९।।— संत कबीर दास साहेब
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हम देखत जग जात है, जग देखत हम जांह।
ऐसा कोई ना मिले, पकड़ि छुड़ावे बांह।।१९७०।।— संत कबीर दास साहेब
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तीनि सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोइ।
सब पियारे राम के, बैठे परबसि होइ।।१९७१।।— संत कबीर दास साहेब
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माया मिले महोबंती, कूड़े आखे बैन।
कोई घायल बेध्या ना मिलै, साई हंदा सैण।।१९७२।।— संत कबीर दास साहेब
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सारा सूरा बहु मिलैं, घाइल मिले न कोइ।
घाइल ही घाइल मिले, तब राम भगति दिढ़ होइ।।१९७३।।— संत कबीर दास साहेब
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हम घर जाल्या आपणां, लिया मूराड़ा हाथिम।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।१९७४।।— संत कबीर दास साहेब
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पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछुटी हंस की, पड्या बंगा कै साथि।।१९७५।।— संत कबीर दास साहेब
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एक अचंभा देखिया, हीरा हाटि बिकाइ।
परिषणहारे बाहिरा, कौड़ी बदले जाइ।।१९७६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गुदड़ी बीषरी, सौदा गया बिकाइ।
खोटा बांध्या गांठड़ी, इब कुछ लिया न जाइ।।१९७७।।— संत कबीर दास साहेब
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पैड़ै मोती बिखरया, अंधा निकस्या आइ।
जोति बिनां जगदीस की, जगत उलंघ्या जाइ।।१९७८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ।।१९७९।।— संत कबीर दास साहेब
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चंदन की कुटकी भली, नां बंबुर को अवरांऊं।
वैसनो की छपरी भलो, नां साषत का बड गाउं।।१९८०।।— संत कबीर दास साहेब
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पुरपाटण सुबस बसै, आनंद ढांये ढांइ।
राम सनेही बाहिरा, ऊंजड़ मेरे भांइ।।१९८१।।— संत कबीर दास साहेब
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जिहं घरि साध न पूजिये, हरि की सेवा नांहि।
ते घर मुड़हट सारषे, भूत बसै तिन मांहि।।१९८२।।— संत कबीर दास साहेब
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है गै गैंवर सघन घन, छत्र धजा फहराइ।
ता सुख थैं भिष्या भली, हरि सुमिरत दिन जाइ।।१९८३।।— संत कबीर दास साहेब
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क्यूं नृप नारी नींदये, क्यूं पनिहारी कौं मान।
व मांग संवारै पीव कौं, वा नित उठि सुमिरै राम।।१९८४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर धनि ते सुंदरी, जिन जाया बैसनौं पूत।
राम सुमरि नरिभै हुवा, सब जग गया अऊत।।१९८५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर कुल तौं सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहि कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास।।१९८६।।— संत कबीर दास साहेब
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साषत बांभण मति मिलै, बैसनौं मिलै चंडाल।
अंकमाल दे भेटिये, मांनों मिले गोपाल।।१९८७।।— संत कबीर दास साहेब
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राम जपत दालिद भला, टूटि घर की छांनि।
ऊचे मंदिर जालि दे, जहां भगति न सारंगपांनि।।१९८८।।— संत कबीर दास साहेब
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निरबैरी निहकांमता, सांई सेती नेह।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतहि का अंग एह।।१९८९।।— संत कबीर दास साहेब
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संत न छाडै संतई, जे कोटिक मिलैं असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत।।१९९०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास।।१९९१।।— संत कबीर दास साहेब
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अणरता सुका सीवणां, रातै नींद न आइ।
ज्यूं जल टूटै मंछली, यूं बेलंत बिहाइ।।१९९२।।— संत कबीर दास साहेब
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जिन्य कुछ जाण्या नहीं तिन्ह, सुख नींदड़ी बिहाइ।
भैर अबूझी बूझिया, पूरी पड़ी बलाइ।।१९९३।।— संत कबीर दास साहेब
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जांण भगत का नित मरण, अणजाणे का राज।
सर अपसर समझै नहीं, पेट भरण सूं काज।।१९९४।।— संत कबीर दास साहेब
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जिहि घटि जांण बिनांण है, तिहि घटि आबटणां घणां।
बिन षडै संग्राम है, नित उठि मन सौं झूझुणां।।१९९५।।— संत कबीर दास साहेब
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राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्है कोइ।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन दिन पीला होइ।।१९९६।।— संत कबीर दास साहेब
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पीलक दौड़ी सांइयां, लोग कहै पिंड रोग।
छांनै लंघण नित करै, राम पियारे जोग।।१९९७।।— संत कबीर दास साहेब
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काम मिलावे राम कूं, जे कोइ जांणे राषि।
कबीर बिचारा क्या करे, जाकी सुखदेव बोले साषि।।१९९८।।— संत कबीर दास साहेब
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कांमणि अंग बिरकत भया, रत भया हरि नांहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूं, अमर भए कलि मांहि।।१९९९।।— संत कबीर दास साहेब
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जदि बिषै पियारी प्रीति सूं, तब अंतर हरि नांहि।
जब अंतर हरि जी बसै, तब विषिया सूं चित्त नांहि।।२०००।।— संत कबीर दास साहेब