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संत कबीर के दोहे संग्रह - 1601 to 1700

  • प्राणी तो जिभ्‍या डिगो, क्षण क्षण बोले कुबोल।
    मन घाले भरमत फिरे, कालहिं देत हिंडोल।।१६०१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • प्रेम पाट का चोलना, पहरि कबीरा नाच।
    पानप दीन्‍हों ताहि को, जो तन मन बोले सांच।।१६०२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • फहम आगे फहम पीछे, फहम बायें डेरे।
    फहम पर जो फहम करे, सोइ फहम है मेरे।।१६०३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बनते भागा बिहुड़े परा, करहा अपने बाने।
    करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जाने।।१६०४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बना बनाया मानवा, बिना बुद्धि वेतूल।
    कहा लाल ले कीजिए, बिना बास का फूल।।१६०५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बलिहारी तेहि दूध की, जामे निकला घीव।
    आधी साखी कबीर की, चारि वेद का जीव।।१६०६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बलिहारी तेहि पुरुष की, जो परचित परखनहार।
    साई दीन्‍हों खांड तो, खारी बूझे गंवार।।१६०७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बड़ा तो गए बड़पने, रोम रोम हंकार।
    सद्गुरु के परचे बिना, चारों वर्ण चमार।।१६०८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बहुत दिवस तें हींडिया, शून्‍य समाधि लगाय।
    करहा पड़ा गाड़ में, दूरि परे पछिताय।।१६०९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बहुबंधन के बंधिया, एक विचारा जीव।
    के छूटे बल आपने, के छुड़ावे पीव।।१६१०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बांह मरोरे जात है, सोबत लिया जगाय।
    कहहिं कबीर एकारि कै, पिण्‍ड रहौ कै जाय।।१६११।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • वाजन दे बाजन्‍तरी, कलि कुकुरी मति छेर।
    तुझे बिरानी क्‍या परी, अपनी आप निबेर।।१६१२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बिन डांडै जग डांडिया, सोरठि परिया डांड।
    बाटनिहारा लोभिया, गुड़े ते मीठी खांड।।१६१३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बिनु रसरी गृह खल बंधा, तासू बंधा अलेख।
    दीन्‍ह दर्पण हस्‍त मधे, चसम बिना का देख।।१६१४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • विष के बिखहिं घर किये, रहा सर्प लपटाय।
    तातें जियरहिं डर भया, जागत रैन विहाय।।१६१५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बूंद जो परा समुद्र में, यह जाने सब कोय।
    समुद्र समाना बूंद में, बुझे बिरला कोय।।१६१६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बेढा दीह्नहो खेता का, बेढा खेतहि खाय।
    तीनि लोक संशय परी, काहि कहा बिलगाय।।१६१७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बेरा बांधिनि सर्प का, भव सागर अतिमाह।
    छोड़े तो बूड नहीं, गहे तो डसे बांह।।१६१८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बेलि कुढंगी फल निफरो, फुलवा कुबुधि गंधाय।
    ओर विनष्‍टी तुंबिका, सरो पात करुवाय।।१६१९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बैठा रहे सो बानिया, खड़ा रहे सा ग्‍वाल।
    जागत रहे सो पाहरु, तिहि धरि आयो काल।।१६२०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बोलना है बह भांति का, नैनन नहिं कछु सूझ।
    कहहिं कबीर पुकारि के, घट बानी बूझ।।१६२१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बोलि हमारी पूर्व की, हमें लखे नहिं कोय।
    हमें लखे सो जना, जो धुर पूरब का होय।।१६२२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भंवर जाल बगु जाल है, बूड़े बहुत अचेत।
    कहहिं कबीर ते बांचिहैं, जाके हृदय विवेक।।१६२३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भंवर विलंबे बाग में, बहु फूलन की बास।
    ऐसे जिव बिलमे विषय में, अन्‍तहु चले निरास।।१६२४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भक्ति पियारी राम की, जैसी प्‍यारी आगि।
    सारा पट्टन जरि गया, फिर फिर ल्‍यावे मागि।।१६२५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबिरन भक्ति बिगारीयां, कंकर पत्‍थर धोय।
    अंदर में विष राखि के, अमृत डारिन खोय।।१६२६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भर्म भरा तिहुँ लोक में, भर्म बसे सब ठाम।
    कहहिं कबीर कैसे बाचिहौ, जब बसे भर्म के ग्राम।।१६२७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मच्‍छ बिकाने सब गये, धीमर के दरबार।
    अंखियां तेरी रतनारी, तुम क्‍यों पैन्‍हीं जाल।।१६२८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन कहे कहौं जाइये, चित्त कहो कहां जाउं।
    छव मास के हींडते, आध कोस पर गांउ।।१६२९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तन बोहित मन काग है, लक्ष जोजन उड़‍ि जाय।
    कबहुंक भरमे आगम दरिया, कबहूं गगन समाय।।१६३०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन गयन्‍द माने नहीं, चले सरति के साथ।
    महावत बिचारा क्‍या करे, जो अंकुश नहिं हाथ।।१६३१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन भर के बोय घुंघची, भर नहिं होय।
    कहा हमारे माने नहीं, अन्‍तहु चला विगोय।।१६३२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन मसलन्‍द गयन्‍द है, मनसा भो संचार।
    सांच मन्‍त्र माने नहीं, उड़‍ि उड़‍ि लागि खान।।१६३३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन स्‍वारथी आपु रस, विषय लहरि फहराय।
    मन चलाये तन चले, ताते सरबस जाय।।१६३४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मनुष्‍य जन्‍म दुर्लभ है, होय न दूजी बार।
    पक्‍का फल जो गिर परै, बहुरि न लागै डार।।१६३५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानष तेरा गुण ही बड़ा, मांस न आवे काज।
    हाड़ न होते आभरण, त्‍वचा न बाजन बाज।।१६३६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष केही अथाइया, मति कोइ पठे धाय।
    एकहि खेत चरत है, बाघ गदहरा गाय।।१६३७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष केरी बड़ पापिया, अक्षर गुरुहिं न मान।
    बार-बार बने कूकही, गर्भ धरे औधान।।१६३८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माया के बस परे, ब्रह्मा विष्‍णु महेश।
    नारद सारद सनक सनन्‍दन, गौरी और गनेश।।१६३९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माया जग सापिनि भई, विष ले बैठी आथि।
    सब जग फंदे फन्दिया, चले कबीरू काछि।।१६४०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • माग तो अति कठिन है, तहं कोई मति जाय।
    गया तो बहुरा नहीं, कुशल कहै को आय।।१६४१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मुख की मीठी जो कहै, हृदये है मति आन।
    कहहिं कबीर तेहि लोकनि से, ऐसो राम सयान।।१६४२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मूढ कर्मिया मानवा नख, शिख पाखर आहि।
    वाहनहारा का करे, जो बाण न लागे ताहि।।१६४३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मूरख को समुझावते, ज्ञान गांठ का जाइ।
    कोयला होइ न ऊजरो, नव मन साबुन लाइ।।१६४४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मूरख सों का कहिए, सठ सों कहा बसाय।
    पाहन में का मारिये, चोखे तीर नसाय।।१६४५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मूवा हे मरिं जाहुगे, बिनु सर थोथे भाल।
    परहु करायल वृक्ष तल, आज मरहु के काल।।१६४६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मैं रोवों ऐहि जगत को, मोको रोवे न कोय।
    मोको रोवे सो जना, जो शब्‍द विवेकी होय।।१६४७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष विचारा क्‍या करे, जाके कहे न खुले कपाट।
    सोनहा चाक बैठाइए, फिर‍ि फिर‍ि एषन चाट।।१६४८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष बिचारा क्‍या करे, जाके हृदय शून।
    सोनहा चाक बिठाइये, फिर‍ि फिर‍ि चाटे चून।।१६४९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष बिचारा क्‍या करे, जाके शून्‍य शरीर।
    जो जिव झाखि न ऊपजे, तो काहे पुकार कबीर।।१६५०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मानुष ह्वे के नहिं मुवा, मुवा सो डांगर ढोर।
    एकां जीवहिं ठौर नहिं लागा, भये सो हाथी घोर।।१६५१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन सायर मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत।
    कहहिं कबीर ते बांचिहै, जाके हृदय विवेक।।१६५२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन माया एक है, माया मनहिं समाय।
    तीनि लोक संशय परे, काहि कहौं बिलगाय।।१६५३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मन माया की कोठरी, तन संशय का कोट।
    विषहर मंत्र न माने, काल सर्प का चोट।।१६५४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बाजीगर के वानरा, जियरा मन के साथ।
    मन सायर समुद्र है, वहि कतहूं जानि जाय।।१६५५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मलयागिरि के वास में, वृक्ष रहे सबभोय।
    कहिबे को चंदन भए, मलयागिरि नहिं होय।।१६५६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मलयागिरि के बास महं, बेधो ढ़ाक पलास।
    वेणा कबहन बेधिया, जुगजुग रहते पास।।१६५७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हौं तो सब ही की कही, मेरी कहे न कोय।
    मेरी कहे सो जना, जो मुझ ही सा होय।।१६५८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • ये कबीर ते उतरिह रहु, तेरो संमल परोहन साथ।
    शंबल घटे न पगु थका, जीव विराने हाथ।।१६५९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • रंगहि ते रंग उपजे, सब रंग देखी एक।
    कवन रंग है जीव को, ताकर करहु विवेक।।१६६०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • रतन का जतन करि, माटी का सिंगार।
    आया कबीरा फिरि गया, झूठा है संसार।।१६६१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • रतन लराइन रेत में, कंकर चुनि चुनि खाय।
    कहहिं कबीर पुकारिके, बहुरि चले पछिताय।।१६६२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • रही एक की भइ अनेक की, विश्‍वा बहु भर्तारी।
    कहहिं कबिर काम संग जरिहै, बहुत पुरुष की नारी।।१६६३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • रामनाम जिन चीन्हिया, झीने पिंजर तासु।
    रैनि न आवे नींदरी, अंग न चढ़‍िया मांसु।।१६६४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राउर के पिछवारे, गावें चारों सन।
    जीव परा बहु लूट में, नहिं कछु लेन न देन।।१६६५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम वियोगी विकल तन, इन दुखवै मति कोय।
    छूबत ही मरि जाहिंगे, तालाबेली होय।।१६६६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राह विचारी क्‍या करै, जो पन्थि नचले बिचारि।
    अपना मारग छोड़‍ि के, फिरे उजारि उजारि।।१६६७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लाई लावनहार की, जाकी लाई पर जरे।
    बलिहारी लावनहार की, छप्‍पर वाचे घर जरे।।१६६८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लोग भरोसे कवन के, बैठ रहे अरगाय।
    ताते जियरहिं जमे लूट, जस मटिया लुटै कसाय।।१६६९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लोभे जन्‍म गमाइया, पापे खाया पुण्‍य।
    साधी सो आधीकहै, ता पर मेरा खून।।१६७०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • लाहा केरी नावरी, पाहन गरुवा भार।
    सिर पर विष की पोटरी, उतरन चाहे पार।।१६७१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • विरह की ओदी लाकरी, सपचे औ धुंधवाय।
    दुख ते तब ही बांचिहो, जब सकलो जरि जाय।।१६७२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • विरहिनि साजी आरती, दर्शन दीजे राम।
    मूये दर्शन देहुगे, आवत कवने काम।।१६७३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍द हमारा आदि का, शब्‍दे पैठा जीव।
    फूल रहन की टोकरी, धोरे खाया घीव।।१६७४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍द हमारा आदि का, पल-पल करहू याद।
    अंत फलेगी माहली, ऊपर की सब वाद।।१६७५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍द बिना सुरति आंधरी, कहो कहां को जाय।
    द्वार न पावै शब्‍द का, फिर‍ि फिर‍ि भटका खाय।।१६७६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍दै मारा गिर पड़ा, शब्‍दै छोड़ा राज।
    जिन्‍ह जिन्‍ह शब्‍द विचारिया, ताको सर गयो काज।।१६७७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍द शब्‍द बहु उंतरे, सार शब्‍द मथि लीजे।
    कहहिं कबिर जेहि सार शब्‍द, नहिं धृग जीवन सो जीजे।।१६७८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • शब्‍द हमारा तूं शब्‍द का, सुनि मति जाह सरक।
    जो चाहहु निज तत्त्‍व को, शब्‍दह लेह परख।।१६७९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हौं जाना कुलहंस हौ, ताते कीन्‍हा संग।
    जो जानत बगु बावरा, ठये न देतेऊं अंग।।१६८०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • श्रोता तो घर में नहीं, वक्‍ता बके सो वादि।
    श्रोता वक्‍ता एक घर, कथा कहावे आदि।।१६८१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संगति के सुख ऊपजे, कुसंगति के दुख होय।
    संसय खंडे जो जना, जो शब्‍द विवेकी होय।।१६८२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • संसारी समय विचारी, कोई गिरही कोई जोग।
    अवसर मारे जात है, ते चेतु बिराने लोग।१६८३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सज्‍जन ते दुर्ज्‍जन भयो, सुनि काहु के बोल।
    कांसा तांबा होय रहा, हता ठिकों के मोल।।१६८४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सद्गुरु वचन सुनहु सन्‍तो, मति लिन्‍हा शिर भार।
    हौं हजूर ठाड़ कहते हौं, तैं क्‍यों संभार।।१६८५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मसो कागद छुवो नहीं, कलम धरो नहिं हाथ।
    चाहिहुं युग को महातम, कबीर मुखहिं जनाई बात।।१६८६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सपने सोवा मानवा, खोलि जो देखे नैन।
    जीव परा बहुलूट में, ना कुछ लेन न देन।।१६८७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सब‍की उत्‍पति धरती, सब जीवन प्रतिपाल।
    धरती न जाने आप गुण, ऐसो गुरु विचार।।१६८८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सब ते सांचा ही भला, जो दिल सांचा होय।
    सांच बिना सुख है नहीं, कोटि करे जो कोय।।१६८९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • समुझे की गति एक है, जिहि समझे सब ठौर।
    कहहिं कबिर ये बीच के, कहै और की और।।१६९०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सब ही तो लघुता भली, लघुता ते सब होय।
    ज्‍यों द्वितीय के चन्‍द्रमा, नवावै सब कोय।।१६९१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • समुझाये समुझे नहीं, पर हाथ आप बिकाय।
    मैं खींचत हौं आपु को, चला सो जमपुर जाय।।१६९२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सांचा शब्‍द कबीर का, हृदया देखि विचारी।
    चित दे समुझे नहिं मोहि, कहत भए जुग चारि।।१६९३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • स्‍वर्ग पताल के बीच में, दुई तंबिरया विध्‍द।
    षट दर्शन संशय परे, लक्ष चौरासी सिद्ध।।१६९४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सांप बिछी का मंत्र है, महुरो झारा जाय।
    सलिल मोह नदिया बहै, पांव कहां ठहराय।।१६९५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सायर बुद्धि बनाय के, बाए बिचक्षण चौर।
    सारी दुनिया जहड़े गया, कोइ न लागा ठौर।।१६९६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सावन केरा सेहरा, बूंद परे असमान।
    सारी दुनिया वैष्‍णव भया, गुरु नहिं लागा कान।।१६९७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साहू चोर चीन्‍हे नहीं, अन्‍ध मति के हीन।
    पारख बिना बिना सहै, करि विचार ही भिन्‍न।।१६९८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साहू से भी चोरबा, चोरहु से भौ होत।
    तब जानिहुगे जीयरा, जबहिं परेगा तुज्‍झ।।१६९९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • साहेब साहेब सब कहें, मोहि अंदेशा ओर।
    साहेब से परचा नहीं, बैठहुगे कहि ठौर।।१७००।।

    — संत कबीर दास साहेब