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प्रेम छिपाया ना छिपै, जा घट परघट होय।
जो पै मुख बोलै नहीं, नैन देत हैं रोय।।८०१।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना वैराग।
सतगुरु बिन जावै नहीं, मन मनसा का दाग।।८०२।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम भक्ति में रचि रहैं, मोक्ष मुक्ति फल पाय।
शब्द मांहि जब मिलि रहै, नहिं आवै नहिं जाय।।८०३।।— संत कबीर दास साहेब
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अमृत पावै ते जना, सतगुरु लागा कान।
वस्तु अगोचर मिलि गई, मन नहिं आवा आन।।८०४।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तो घर है प्रेम का, ऊंचा अधिक इकंत।
शीष काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।।८०५।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुई गात।
अपने जिय से जानिये, मेरे जिय की बात।।८०६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हम गुरु रसि पिया, बाकी रही न छाक।
पाका कलश कुम्हार का, बहुरि न चढ़सी चाक।।८०७।।— संत कबीर दास साहेब
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आया प्रेम कहां गया, देखा था सब कोय।
छिन रावै छिन में हंसै, सो तो प्रम न होय।।८०८।।— संत कबीर दास साहेब
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आठ पहर चौसठ घड़ी, लागि रहे अनुराग।
हिरदै पलक न बीसरे, तब सांचा बैराग।।८०९।।— संत कबीर दास साहेब
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जाके चित्त अनुराग है, ज्ञान मिने नर सोय।
बिन अनुराक न पावई, कोटि करै जो कोय।।८१०।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होय।
कबहुक जो अवगुन पड़ै, गुन ही लहै समोय।।८११।।— संत कबीर दास साहेब
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सबै रसायन हम पिया, प्रेम समान न कोय।
रंचक तन में संचरै, सब तन कंचन होय।।८१२।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्है कोय।
जा मारण साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय।।८१३।।— संत कबीर दास साहेब
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मिलना जग में कठिन है, मिलि बिछरौ जनि कोय।
बिछुरा साजन तिहि मिलै, जिहि माथै मनि होय।।८१४।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम बिना नहिं भेष कछु, नाहक करै सुवाद।
प्रेम बाद जग लग नहीं, सबै भेष बरबाद।।८१५।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम भाव इक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
भावै घर में वास कर, भावै बन में जाय।।८१६।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेमी ढूंढत मैं फिरुं, प्रेमी मिलै न कोय।
प्रेमी सों प्रेमी मिलै, विष से अमृत होय।।८१७।।— संत कबीर दास साहेब
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जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जानु मसान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिन प्रान।।८१८।।— संत कबीर दास साहेब
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गहरी प्रीति सुजान की, बढ़त-बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी प्रीति अजान की, घटत घटत घटि जाय।।८१९।।— संत कबीर दास साहेब
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जब लग मरने से डरैं, तब लगि प्रेमी नांहि।
बड़ी दूर है प्रेम घर, समझ लेहु मन मांहि।।८२०।।— संत कबीर दास साहेब
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गुणवेता औ द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय।
कबीर प्रीति सो जानिये, इनते न्यारी होय।।८२१।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जो रुचै, शीश देय ले जाय।।८२२।।— संत कबीर दास साहेब
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जो जागत सो सपन में, ज्यौं घट भीतर सांस।
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास।।८२३।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम प्रीति से जो मिले, ताको मिलिये धाय।
कपट राखिके जो मिले, तासे मिलै बलाय।।८२४।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम पियाला जो पिये, शीश दच्छिना देय।
लोभी शीश न दे सकै, नाम प्रेम का लेय।।८२५।।— संत कबीर दास साहेब
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आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खड़क की धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्यौहार।।८२६।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रीति पुरानि न होत है, जो उत्तम से लाग।
सो बरसां जल में रहै, पथर न छोड़े आग।।८२७।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रीति बहत संसार में, नाना विधि की सोय।
उत्तम प्रीति सो जानिये, सतगुरु से जो होय।।८२८।।— संत कबीर दास साहेब
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प्रेम पंथ में पग धरै, देत न शीश डराय।
सपने मोह व्यापे नहिं, ताको जन्म नशाय।।८२९।।— संत कबीर दास साहेब
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सजन सनेही बहुत हैं, सुख में मिले अनेक।
बिपत्ति पड़े दुख बांटिये, सो लाखन में एक।।८३०।।— संत कबीर दास साहेब
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छिनहि चढ छिन उतरै, सो तो प्रेम न होय।
औघट घाट पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।।८३१।।— संत कबीर दास साहेब
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जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांहि।।८३२।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
शीष उतारै भुई धरै, तब पैठे घर माहिं।।८३३।।— संत कबीर दास साहेब
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गोता मारा सिंधु में, मोती लाये पैठि।
वह क्या माेती पायेंगे, रहे किनारे बैठि।।८३४।।— संत कबीर दास साहेब
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मैं भौंरा तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय।
अटकेगा कहुं बेल सों, तड़प तड़प जिय देय।।८३५।।— संत कबीर दास साहेब
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इत पर घर उत है घरा, बनिजन आये हाट।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो बाट।।८३६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि।।
खेत बिचारा क्या करै, धनी करै नहिं वारि।।८३७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर यह संसार है, जैसा सेंमल का फूल।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न फूल।।८३८।।— संत कबीर दास साहेब
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राम भजो तो अब भजो, बहोरि भजोगे कब्ब।
हरिया हरिया रुखड़े, ईंधन हो गये सब्ब।।८३९।।— संत कबीर दास साहेब
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दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।८४०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव।।८४१।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर जो दिन आज है, सो दिन नांहि काल।
चेति सके तो चेति ले, मीच परी है ख्याल।।८४२।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर या संसार में, घना मानुष मतिहीन।
राम नाम जाना नहीं, आये टापा दीन।।८४३।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्यौं कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छोर।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सके तो दौर।।८४४।।— संत कबीर दास साहेब
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मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फांसि।।८४५।।— संत कबीर दास साहेब
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मोर तोर की जेवरी, गल बंधा संसार।
दास कबीरा क्यों बंधौ, जाके नाम अधार।।८४६।।— संत कबीर दास साहेब
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जो तू परा है फंद में, निकसेगा कब अंध।
माया मद तोकूं चढ़ा, मत भूले मतिमंद।।८४७।।— संत कबीर दास साहेब
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क्या करिये क्या जोड़िये, छोड़ जीवन काज।
छाडि छाडि सब जात हैं, देह गेह धन राज।।८४८।।— संत कबीर दास साहेब
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एक बुन्द के कारनै, रोता सब संसार।
अनेक बुन्द खाली गये, तिनका नहीं विचार।।८४९।।— संत कबीर दास साहेब
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मरुं मरुं सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय।
मरना था सो मरि चुका, अब को मरने जाय।।८५०।।— संत कबीर दास साहेब
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मन मूआ माया मुई, संशय मुआ शरीर।
अविनाशी जो ना मरे, तो क्यों मरे कबीर।।८५१।।— संत कबीर दास साहेब
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तन सराय मन पाहरु, मनसा उतरी आय।
को काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय।।८५२।।— संत कबीर दास साहेब
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जिनके नौबत बाजती, मैंगल बंधति बारि।
एकहि गुरु के नाम बिन, गये जनम सब हारि।।८५३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गर्व न कीजिये, ऊंचा देखि अवास।
काल परे भुंई लेटना, ऊपर जमसी घास।।८५४।।— संत कबीर दास साहेब
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नान्हा कातौ चित्त दे, महंगे मोल बिकाय।
गाहक राजा राम है, और न नियरे जाय।।८५५।।— संत कबीर दास साहेब
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मच्छ होय नहीं बचिहों, धीमर तेरो काल।
जिहि जिहि डाबर तुम फिरे, तहं तहं मेले जाल।।८५६।।— संत कबीर दास साहेब
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ऊंचा महल चुनाइया, सुबरन कली ढुलाय।
वे मन्दिर खाली पड़े, रहै मसाना जाय।।८५७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गर्व न कीजिये, चाम लपेटे हाड़।
हय बर ऊपर छत्र तट, तो भी देवे गाड़।।८५८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर नाव तो झांझरि, भरी बिराने भार।
खेवट सों परिच नहीं, क्यौंकर उतरै पार।।८५९।।— संत कबीर दास साहेब
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जागो लोगो मत सुवो, ना कुरु नींद से प्यार।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार।।८६०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गर्व न कीजिये, काल गहे कर केश।
ना जानौ कित मारि हैं, क्या घर क्या परदेस।।८६१।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गर्व न कीजिये, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।८६२।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गर्व न कीजिये, देही देखि सुरंग।
बिछुरे पै मेला नहीं, ज्यों केचुली भुजंग।।८६३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर जंत्र न बाजई, टूट गये सब तार।
जंत्र बिचारा क्या करै, जब चला बजावन हार।।८६४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गाफिल क्या करै, आया काल नजीक।
कान पकरि के ले चले, ज्यौं अजियाहि खटीक।।८६५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर पानी हौज का, देखत गया बिलाय।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुंचा आय।।८६६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर केवल नाम कह, शुद्ध गरीबी चाल।
कूर बड़ाई बूड़सी, भारी परसी झाल।।८६७।।— संत कबीर दास साहेब
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मरेंगे मरि जायंगे, कोय न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसाहिंगे, छोड़ि बसन्ता गाम।।८६८।।— संत कबीर दास साहेब
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नर नारायन रूप है, तू मति जानै देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।८६९।।— संत कबीर दास साहेब
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आंखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्जल भये, अबहूं निपट अजान।।८७०।।— संत कबीर दास साहेब
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अहिरन की चोरी करै, करे सुई का दान।
ऊंचा चढ़ि कर देखता, केतिक दूर विमान।।८७१।।— संत कबीर दास साहेब
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चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछिताय।।
ताको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय।।८७२।।— संत कबीर दास साहेब
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मूरख शब्द न मानई, धर्न न सुनै विचार।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वार।।८७३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर वा दिन याद कर, पग ऊपर तल सीस।
मृत मंडल में आयके, बिसरि गया जगदीस।।८७४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेवन हार।
हरुये हरुये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार।।८७५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर पांच पखेरुआ, राखा पोष लगाय।
एक जू आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय।।८७६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर रसरी पांव में, कह सौवे सुख चैन।
मांस नगारा कूंच का, बाजत है दिन रैन।।८७७।।— संत कबीर दास साहेब
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आये हैं तो जायेंगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बांधे जात जंजीर।।८७८।।— संत कबीर दास साहेब
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या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनि गाड़ि।
चलती बिरियां उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि।।८७९।।— संत कबीर दास साहेब
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तू मति जाने बावरे, मेरा है सब कोय।
प्रान पिण्ड सो बंधि रहा, सो नहिं अपना होय।।८८०।।— संत कबीर दास साहेब
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दीन गंवायो दूनि संग, दुनी न चाली साथ।
पांव कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ।।८८१।।— संत कबीर दास साहेब
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काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात।
सगुन निगुन दोय पाटला, तामें जीव पिसात।।८८२।।— संत कबीर दास साहेब
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मेरा संगी कोय नहिं, सबै स्वारथी लोय।
मन परतीति न ऊपजै, जिय विस्वास न होय।।८८३।।— संत कबीर दास साहेब
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महलन मांही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय।।८८४।।— संत कबीर दास साहेब
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जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय।
ते भी होती मानवी, करते रंग रलियाय।।८८५।।— संत कबीर दास साहेब
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जिसका रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्त।
जैसे घर पर पाहुना, रहै उठाये चित्त।।८८६।।— संत कबीर दास साहेब
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राम नाम जाना नहीं, पाला सकल कुटूम्ब।
धन्धाही में पचि मरा, बार भई नहिं बुम्ब।।८८७।।— संत कबीर दास साहेब
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कहा किया हम आयके, कहा करेंगे जाय।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गंवाय।।८८८।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ।
टपका लागा फुटि गया, कछू ना आया हाथ।।८८९।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तन काचा कुंभ है, माहिं किया रहि वास।
कबीर नैन निहारिया, नहिं जीवन की आस।।८९०।।— संत कबीर दास साहेब
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विषय वासना उरझिकर, जनम गंवाय बाद।
अब पछितावा क्या करै, निज करनी कर याद।।८९१।।— संत कबीर दास साहेब
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राजपाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।
पड़ासी की जो दशा, भई सो अपनी जान।।८९२।।— संत कबीर दास साहेब
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चले गये सो ना मिले, किसको पूंछू बात।
मात पिता सुत बान्धवा, झूठा सब संघात।।८९३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर मन्दिर लाख का, जड़िया हीरा लाल।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जाएगा काल।।८९४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर धूलि सकेलि के, पुड़ी जो बांधी येह।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह।।८९५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली, बहुरि न देखहु आय।।८९६।।— संत कबीर दास साहेब
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पांचों नौबत बाजते, होत छत्तीसों राग।
सो मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग।।८९७।।— संत कबीर दास साहेब
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कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय।
मीच सुनैगां पापिनी, दौरि कि लेगी आय।।८९८।।— संत कबीर दास साहेब
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यह तन कांचा कुंभ है, चोट चहूं दिस खाय।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय।।८९९।।— संत कबीर दास साहेब
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पांच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम।
दिन चार के कारने, फिर फिर रोके ठाम।।९००।।— संत कबीर दास साहेब