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सतगुरु मेरा शूरमा, तकि तकि मारै तीर।
लागे पन भागे नही, ऐसा दास कबीर।।५०१।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु महिमा अनंत है, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावन हार।।५०२।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु शरण न आवहीं, फिरि फिरि होय अकाज।
जीव खोय सब जायेंगे, काल तिहूं पुर राज।।५०३।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु सम को है सगा, साधु सम को दात।
हरि समान को है हितु, हरिजन सम को जात।।५०४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर समुझा कहत है, पानी थाह बताय।
ताकूं सतगुरु को करे, जो औघट डूबे जाय।।५०५।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इक-इस ब्रह्मण्ड।।५०६।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु सांचा शूरमा, नख शिख मारा पूर।
बाहिर घाव न दीखई, अन्तर चकनाचूर।।५०७।।— संत कबीर दास साहेब
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केते पढि गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपय।।५०८।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शीष धन भाग तिहिं, जो ऐसी सुधि पाया।।५०९।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्यौ एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भींजि गयो सब अंग।।५१०।।— संत कबीर दास साहेब
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पाछे लागे जाय था, लोक वेद के साथ।
पैडे में सतगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।५११।।— संत कबीर दास साहेब
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जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव।।५१२।।— संत कबीर दास साहेब
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सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय।
माता-पिता सुत बांधवा, ये तो घर घर होय।।५१३।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस।।५१४।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय।।५१५।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नांहि।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खांहि।।५१६।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग।
कहै कबीर मैली गजी, कैसे लागै रंग।।५१७।।— संत कबीर दास साहेब
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गु अंधियारी जानिये, रु कहिये परकास।
मिटे अज्ञान तम ज्ञान ते, गुरु नाम है तास।।५१८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार।
पापी का पापी गुरु, यो बूड़ा संसार।।५१९।।— संत कबीर दास साहेब
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जानीता बूझा नहीं, बूझि किया नहिं गौन।
अंधे को अंधा मिले, राह बताये कौन।।५२०।।— संत कबीर दास साहेब
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भेदी लीया साथ करि, दीन्हा वस्तु लखाय।
कोटि जनम का पंथ था, पल में पहुंचा जाय।।५२१।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नांव।।५२२।।— संत कबीर दास साहेब
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सो गुरु निसदिन बन्दिये, जासों पाया राम।
नाम बिना घट अंध है, ज्यो दीपक बिन धाम।।५२३।।— संत कबीर दास साहेब
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जा गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय।
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुंचा जाय।।५२४।।— संत कबीर दास साहेब
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झूठे गुरु के पक्ष को, तजज न कीजै बार।
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार।।५२५।।— संत कबीर दास साहेब
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जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिनकी जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।५२६।।— संत कबीर दास साहेब
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सांचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहिं जाय।।५२७।।— संत कबीर दास साहेब
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जाका गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्ध मिला, पड़ा काल के फन्दा।।५२८।।— संत कबीर दास साहेब
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पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख।
स्वांग यती का पहिन के, घर-घर मांगी भीख।।५२९।।— संत कबीर दास साहेब
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बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुड़ाय।।५३०।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि।
बिना बिचारे गुरु करे, परै चौरासी खानि।।५३१।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु तो ऐसा चाहिए, शिष सो कछु न लेय।
शिष तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।।५३२।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु भया नहिं शिष भया, हिरदे कपट न जाय।
आलो पालो दुख सहै, चढ़ि पाथर की नाव।।५३३।।— संत कबीर दास साहेब
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जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहिरै पानी पैठ।
मैं बंपरा बडने डरा, रहा किनारे बैठ।।५३४।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा कोई ना मिला, हम को दे उपदेश।
भवसागर में डूबते, कर गहि काढे केश।।५३५।।— संत कबीर दास साहेब
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जैसा ढूंढत में फिरुं, तैसा मिला न कोय।
ततवेता तिरंगुन रहित, निरगुन सों रत होय।।५३६।।— संत कबीर दास साहेब
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शिष्य पूजै गुरु आपना, गुरु पूजे सब साध।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध।।५३७।।— संत कबीर दास साहेब
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देश देशान्तर मैं फिरुं, मानुष बड़ा सुकाल।
जा देख सुख उपजे, वाका पड़ा दुकाल।।५३८।।— संत कबीर दास साहेब
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ऐसा काई ना मिला, जासू कहुं निसंक।
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक।।५३९।।— संत कबीर दास साहेब
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हिरदे ज्ञान न उपजे, मन परतीत न होय।
ताको सदगुरु कहा करे, घनघसि कुल्हर न होय।।५४०।।— संत कबीर दास साहेब
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सरबस सीस चढ़ाइये, तन कृत सेवा सार।
भूख प्यास सहे ताड़ना, गुरु के सुरति निहार।।५४१।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट ते संत होत है, जो गुरु मिले सुजान।
राम-नाम निज मंत्र दे, छुड़ावै चारों खान।।५४२।।— संत कबीर दास साहेब
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जो कामिनी पड़दै रहे, सुनै न गुरुमुख बात।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारै गात।।५४३।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हृदय कठोर के, शब्द न लागै सार।
सुधि बुधि के हिरदे विधे, उपजे ज्ञान विचार।।५४४।।— संत कबीर दास साहेब
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हरिया जानै रुखड़ा, उस पानी का नेह।
सूखा काठ न जानि है, कितहूं बूड़ा मेह।।५४५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर लहरि समुद्र की, मोती बिखरे आय।
बगुला परख न जानई, हंसा चुनि-चुनि खाय।।५४६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि-रस बरसिया, गिरि परवत बनराय।
नीर निवानु ठाहरै, ना वह छापर डाय।।५४७।।— संत कबीर दास साहेब
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पशुवा सों पालौ पर्यो, रहु रहु हिया न खीज।
ऊषर बीज न ऊगसी, बोवै दूना बीज।।५४८।।— संत कबीर दास साहेब
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साकट का मुख बिंब है, निकसत बचन भुवंग।
ताकी औषधि मौन है, विष नहिं व्यापै अंग।।५४९।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर गुरु की भक्ति बिनु, राजा रासभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।५५०।।— संत कबीर दास साहेब
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निगुरा ब्राह्मण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भुंके द्वार।।५५१।।— संत कबीर दास साहेब
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कंचन मेरु अरपहीं, अरपै कनक भण्डार।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहुं न पावै पार।।५५२।।— संत कबीर दास साहेब
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गगन मंडल के बीच में, तहवां झलकै नूर।
निगुरा महल न पावई, पहुंचेगा गुरु पूर।।५५३।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्फल गया, पूछौ वेद पुरान।।५५४।।— संत कबीर दास साहेब
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सूता साधु जगाइये, करै ब्रह्म को जाप।
ये तीनों न जगाइये, साकट सिंह अरु सांप।।५५५।।— संत कबीर दास साहेब
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हरिजन की लातां भलीं, बुरि साकट की बात।
लातों में सुख ऊपजे, बाते इज्जत जात।।५५६।।— संत कबीर दास साहेब
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शुकदेव सरिखा फेरिया, तो को पावै पारा।
गुरु बिन निगुरा जो रहै, पड़े चौरासी धार।।५५७।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय।
जो होवै सूली सजा, कांटे ई टरि जाय।।५५८।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरि भरि भेटिये, पाप शरीरा जाय।।५५९।।— संत कबीर दास साहेब
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तीरथ न्हाये एक फल, साधु मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहैं कबीर विचार।।५६०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि।
ज्यों उद्यम से लक्ष्मी, आलस मन से हानि।।५६१।।— संत कबीर दास साहेब
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दरशन कीजै साधु का, दिन में कई कई बार।
असोजा का मेह ज्यों, बहुत करे उपकार।।५६२।।— संत कबीर दास साहेब
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कई बार नहिं कर सके, दोय बख्त करि लेय।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय।।५६३।।— संत कबीर दास साहेब
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दोख बखत नहिं करि सके, दिन में करु इक बार।
कबीर साधु दरश ते, उतरे भौजल पार।।५६४।।— संत कबीर दास साहेब
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एक दिना नहिं करि सके, दूजे दिन कर लेह।
कबीर साधु दरश ते, पावै उत्तम देह।।५६५।।— संत कबीर दास साहेब
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दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करु जाय।
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फल पाय।।५६६।।— संत कबीर दास साहेब
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तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करु जाय।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय।।५६७।।— संत कबीर दास साहेब
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पाख पाख नहिं करि सकै, मास-मास करु जाय।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुझाय।।५६८।।— संत कबीर दास साहेब
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मास-मास नहिं करि सकै, छठै मास अलबत्त।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत।।५६९।।— संत कबीर दास साहेब
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बरस-बरस नहिं करि सकै, ताको लागे दोष।
कहैं कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै मोष।।५७०।।— संत कबीर दास साहेब
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मात पिता सुत स्त्री, आलस बन्धु कानि।
साधु दरश को जब चलै, ये अटकावै आनि।।५७१।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु शब्द समुद्र है, जामें रतन भराय।
मन्द भाग मुट्ठी भरै, कंकर हाथ लगाय।।५७२।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु मिले यह सब टलै, काल-हाल जम चोट।
शीश नवावत ढहि परै, अघ्ज्ञ पापन के पोट।।५७३।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहिं।।५७४।।— संत कबीर दास साहेब
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कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर।
जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर।।५७५।।— संत कबीर दास साहेब
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दुख सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप।।५७६।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु बड़े परमारथी, धन ज्यों बरसे आय।
तपन बुझावैं और की, अपनो पारस लाय।।५७७।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु आवत देखि कर, हंसी हमारी देह।
माथा का ग्रह ऊतरा, नैनन बढ़ा स्नेह।।५७८।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु भौंरा जग कली, निश दिन फिरै उदास।
टुक टुक तहां बिलंबिया, जहं शीतल शब्द निवास।।५७९।।— संत कबीर दास साहेब
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मानपमान न चित्त धरै, औरत को सनमान।
जो कोई आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान।।५८०।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि।
अपने मत गाढ़ा रहै, साधुन का मय येहि।।५८१।।— संत कबीर दास साहेब
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जो सुख को मुनिवर रटैं, सुन नर करै विलाप।
सो सुख सहजै पाइया, सन्तों संगति आप।।५८२।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर शीतल जल नहीं, हिम ना शीतल होय।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय।।५८३।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु आवत देखि के, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गांव की खोर।।५८४।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर लौंग-इलायची, दातुन माटी पानि।
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि।।५८५।।— संत कबीर दास साहेब
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हरि दरबारी साधु हैं, इन ते सब कुछ होय।
बेगि मिलावें राम को, इन्हें मिले जु कोय।।५८६।।— संत कबीर दास साहेब
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संत मिले जनि बीछरो, बिछरो यह मम प्रान।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन।।५८७।।— संत कबीर दास साहेब
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निर्बेरी निहकामता, स्वामी सेती नेह।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह।।५८८।।— संत कबीर दास साहेब
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कोई आवै भाव लै, कोई अभाव ले आव।
साधु दाऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव।।५८९।।— संत कबीर दास साहेब
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टूका माही टक दे, चीर माहि सो चीर।
साधु देत न सकुचिये, यों कथि कहहिं कबीर।।५९०।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु आया पाहना, मांगै चार रतन।
धुनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न।।५९१।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु चलत रो दीजिए, कीजै अति सनमान।
कहैं कबीर कछु भेट धरु, अपने बित्त अनुमान।।५९२।।— संत कबीर दास साहेब
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खाली साधु न बिदा करु, सुन लीजै सब कोय।
कहैं कबीर कछु भेंट धरु, जो तेजे घर होय।।५९३।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह।
इन मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करि लेह।।५९४।।— संत कबीर दास साहेब
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आज काल दिन पांच में, बरस पांच जुग पंच।
जब तब साधु तारसी, और सकल परपंच।।५९५।।— संत कबीर दास साहेब
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बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न संचवै नीर।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर।।५९६।।— संत कबीर दास साहेब
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सुख देवै दुख को हरै, दूर करै अपराध।
कहैं कबीर वह कब मिलै, परम स्नेही साध।।५९७।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल।
परमारथ करता रहै, बोलै बचन रसाल।।५९८।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु साधु सब बड़े हैं, जस पस्ते का खेत।
कोई विवेकी लाल हैं, और सेत का सेत।।५९९।।— संत कबीर दास साहेब
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सन्त मता गजराज का, चाले बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछै फिरै, सुनै न वाका सोर।।६००।।— संत कबीर दास साहेब