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तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल।।४०१।।— संत कबीर दास साहेब
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साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय।।४०२।।— संत कबीर दास साहेब
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संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।४०३।।— संत कबीर दास साहेब
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तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय।।४०४।।— संत कबीर दास साहेब
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अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय।।४०५।।— संत कबीर दास साहेब
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आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल।।४०६।।— संत कबीर दास साहेब
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द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय।।४०७।।— संत कबीर दास साहेब
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उलटे सुलटे बचन के, शीष न मानै दुख।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख।।४०८।।— संत कबीर दास साहेब
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दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान।।४०९।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त।।४१०।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।।४११।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार।।४१२।।— संत कबीर दास साहेब
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जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव।।४१३।।— संत कबीर दास साहेब
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पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत।।४१४।।— संत कबीर दास साहेब
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खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर।।४१५।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय।।४१६।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट।।४१७।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
परमारथ के कारने, यह तन रहो कि जाव।।४१८।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय।।४१९।।— संत कबीर दास साहेब
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भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव।।४२०।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन।।४२१।।— संत कबीर दास साहेब
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ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि।।४२२।।— संत कबीर दास साहेब
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आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।।४२३।।— संत कबीर दास साहेब
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सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग।।४२४।।— संत कबीर दास साहेब
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ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय।।४२५।।— संत कबीर दास साहेब
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पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय।।४२६।।— संत कबीर दास साहेब
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पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।४२७।।— संत कबीर दास साहेब
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कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि।।४२८।।— संत कबीर दास साहेब
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मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान।
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान।।४२९।।— संत कबीर दास साहेब
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कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम।।४३०।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर।।४३१।।— संत कबीर दास साहेब
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डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार।।४३२।।— संत कबीर दास साहेब
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बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत।।४३३।।— संत कबीर दास साहेब
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एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं।।४३४।।— संत कबीर दास साहेब
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जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग।।४३५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं।।४३६।।— संत कबीर दास साहेब
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समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान।।४३७।।— संत कबीर दास साहेब
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क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ।।४३८।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार।।४३९।।— संत कबीर दास साहेब
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कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय।।४४०।।— संत कबीर दास साहेब
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जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त।
दो बैरी बिच झोंपड़ा, कुशल कहाँ सो मित्र।।४४१।।— संत कबीर दास साहेब
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बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और।
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर।।४४२।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात।
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात।।४४३।।— संत कबीर दास साहेब
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धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल।
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल।।४४४।।— संत कबीर दास साहेब
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संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि।
काल से बांचे दास जन, जिन पै द्दाल हुजूर।।४४५।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ।
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ।।४४६।।— संत कबीर दास साहेब
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काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय।
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय।।४४७।।— संत कबीर दास साहेब
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लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान।
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान।।४४८।।— संत कबीर दास साहेब
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गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।।४४९।।— संत कबीर दास साहेब
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देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह।
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह।।४५०।।— संत कबीर दास साहेब
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सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक।।४५१।।— संत कबीर दास साहेब
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कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय।
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय।।४५२।।— संत कबीर दास साहेब
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विषय वासना उरझि कर, जनम गंवाया बाद।
अब पछितावा क्या करै, निज करनी कर याद।।४५३।।— संत कबीर दास साहेब
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सोना सज्जन साधुजन, टूट जुड़े सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धक्का दरार।।४५४।।— संत कबीर दास साहेब
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मरण भला तब जानिए, छूट जाए हंकार।
जग की मरनी क्यों मरें, दिन में सौसौ बार।।४५५।।— संत कबीर दास साहेब
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साधो रण में मिट रहा, टूटन दे हंकार।
जग की मरनी क्यों मरें, दिन में सौसौ बार।।४५६।।— संत कबीर दास साहेब
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बहता पानी निर्मला, बंधे सो गंदा होए।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय।।४५७।।— संत कबीर दास साहेब
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गगन दमामा बाजिया, पड़े निसाने घाव।
खेत बुहारे सूरमा, मोहे मरण का चाव।।४५८।।— संत कबीर दास साहेब
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सूरा सोई सराहिये, लड़े मुक्ति के हेत।
पुर्जा पुर्जा कट पड़े, तो भी ना छाड़े खेत।।४५९।।— संत कबीर दास साहेब
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भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक।
जो पाई भीतर लखि परै,भीतर बाहर एक।।४६०।।— संत कबीर दास साहेब
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जल में बसे कुमुदनी, चंदा बसे अकास।
जैसी जिसकी भावना, सो ताही के पास।।४६१।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्ञानी भूले ज्ञान कथि, निकट रहा निज रूप।
बाहिर खोजै बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।।४६२।।— संत कबीर दास साहेब
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आपा मेटे हरि मिले, हरि मेटे सब जाई।
अकथ कहानी प्रेम की, कोई नहीं पतियाय।।४६३।।— संत कबीर दास साहेब
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जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।।४६४।।— संत कबीर दास साहेब
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राम नाम कड़वा लगे, मीठा लागे दाम।
दुविधा में दोनों गए, माया मिली ना राम।।४६५।।— संत कबीर दास साहेब
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भागे भला न होएगा, कहा धरोगे पाव।
सिर सौंपो सीधे लड़ो, काहे करौ कुदाव।।४६६।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।।४६७।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु नारायन रूप है, गुरु ज्ञान को घाट।
सतगुरु बचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट।।४६८।।— संत कबीर दास साहेब
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जैसी प्रीति कुटुंब की, तैसी गुरु सों होय।
कहें कबीर ता दास को, पला न पकड़े कोय।।४६९।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरु दीन्हीं दान।।४७०।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु को मानुष जानते, ते नर कहिए अन्ध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फन्द।।४७१।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संंत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।४७२।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु की आज्ञा आवई, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत है, आवागमन नशाय।।४७३।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु महिमा गावत सदा, मन राखे अति मोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद।।४७४।।— संत कबीर दास साहेब
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सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति है, कीजे सोइ उपाय।।४७५।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु गोविन्द करि जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तो दण्डवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय।।४७६।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत।।४७७।।— संत कबीर दास साहेब
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तन मन ताको दीजिए, जोको विषया नाहि।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब माहिं।।४७८।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु शरणागत छाड़ि के, करै भरोसा और।
सुख सम्पति को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।४७९।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि के रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।४८०।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर।।४८१।।— संत कबीर दास साहेब
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कहैं कबीर तजि भरम को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहँ गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव।।४८२।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु सों ज्ञान जो लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान।।४८३।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु गोविन्द दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटैं हरि भजैं, तब पावे दीदार।।४८४।।— संत कबीर दास साहेब
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जल परमानै माछली, कुल परमानै सुद्धि।
जाको जैसा गुरु मिला, ताको तैसी बुद्धि।।४८५।।— संत कबीर दास साहेब
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अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।४८६।।— संत कबीर दास साहेब
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पंडित पढि़ गुनि पचि मुये, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त सब्द परमान।।४८७।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान।।४८८।।— संत कबीर दास साहेब
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ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास।।४८९।।— संत कबीर दास साहेब
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मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।४९०।।— संत कबीर दास साहेब
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सब धरती कागद करुं, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करुं, गुरु गुण लिखा न जाय।।४९१।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं।।४९२।।— संत कबीर दास साहेब
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जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि।
शीष भाव सुत जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि।।४९३।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं।।४९४।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु सेवा जन बन्दगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवे भाग।।४९५।।— संत कबीर दास साहेब
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गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।४९६।।— संत कबीर दास साहेब
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कबीर हरि के रूठते, गुरु के शरणै जाय।
कहैं कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय।।४९७।।— संत कबीर दास साहेब
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चारि खानि में भरमता, कबहु न लगता पार।
सो फेरा सब मिटि गया, सतगुरु के उपकार।।४९८।।— संत कबीर दास साहेब
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बिन सद्गुरु बाचै नहीं, फिर बूड़े भव मांहि।
भौसागर की त्रास से, सतगुरु पकड़े बाहि।।४९९।।— संत कबीर दास साहेब
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चित चोखा मन निरमला, बुधि उत्तम मति धीर।
सो धोखा नहिं बिरहहीं, सतगुरु मिले कबीर।।५००।।— संत कबीर दास साहेब